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दरभंगाबिहार

विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा द्वारा वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया

विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा द्वारा वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया

आज दिनांक 10.01.2023 को विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा द्वारा “वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी : वर्तमान एवं भविष्य” विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
उद्घाटनकर्ता माननीया प्रति-कुलपति महोदया प्रो० डॉली सिन्हा ने इस मौके पर कहा कि अब समय आ गया है कि तमाम व्यावसायिक कोर्सों में शिक्षण का माध्यम हिंदी किया जाना चाहिए।

उन्होंने यह भी कहा कि भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखरजी ने कई मौकों पर वैश्विक मंचों पर हिंदी का प्रयोग किया है। हिंदी को विश्वभाषा का दर्जा दिलाने के लिए पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह के अविस्मरणीय योगदान का उल्लेख भी उन्होंने अपने भाषण में किया।

उर्दू के अद्वितीय साहित्यकार ल. ना. मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के कुलसचिव प्रो० मुश्ताक अहमद ने कहा कि हिंदी केवल भाषा नहीं है, बल्कि भारत की आत्मा और सांस है। प्रो. अहमद ने कहा कि पूरी दुनिया में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं उनसे कहीं ज्यादा अकेले भारत में बोली जाती हैं।

सम्भवतः इसीलिए भारत में कहा भी जाता है कि ‘सात कोस पर पानी बदले और आठ कोस पर बानी|उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हिंदी को जड़ से मजबूत करने की आवश्यकता है। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि ऐसे कार्यक्रमों में विद्यार्थियों को भी बोलने का अवसर दिया जाना चाहिए।

प्रो. राजेन्द्र साह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि हम आज भी भाषिक गुलामी के शिकार हैं और ऐसी स्थिति में हम पूर्ण आजादी की कल्पना कैसे कर सकते हैं? आज प्रवासी भारतीयों द्वारा हिंदी लेखन जारी है। हिंदी की कई चुनौतियों को गिनाते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी की जो सह भाषाएं अथवा बोलियां हैं वे भी भाषा के रूप में दर्जा चाहती हैं ऐसे में हिंदी के विराट फलक पर असर पड़ता है।

आज हिंदी भाषा में अनुवाद की भी भीषण समस्या है। हिंदी की स्वाभाविक सहजता है वह दुरूह अनुवाद से खंडित होती है। अनुवाद के दौरान हिंदी की उदारवादी प्रकृति का ख्याल रखना आवश्यक है।

इस अवसर पर मुख्य वक्ता प्रो० अमरनाथ शर्मा ने कहा कि आज संक्रमण का युग है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने पांच हजार प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया है। आंध्र प्रदेश और राजस्थान की सरकारों ने भी प्राथमिक विद्यालयों के साथ ऐसा ही किया है।

आज गांधी के नाम पर महात्मा गांधी अंग्रेजी माध्यम स्कूल राजस्थान में खोले गए हैं। राहुल गांधी भी राजस्थान में कहते हैं कि हम चाहते हैं कि यहां के किसानों के बच्चे अंग्रेजी में अमरीका के बच्चों को हरायें। बंगाल में भी बंगाली स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में बदला जा रहा है। चाहे किसी भी दल की सरकारें हों उन्होंने अगर सबसे ज्यादा किसी चीज पर हमला किया है तो वह हमारी मातृभाषा हिंदी पर किया है।

प्रो. शर्मा ने आंकड़ों के साथ बताया कि यूपीएससी में 2009 में 25% हिंदी माध्यम के प्रतिभागी उत्तीर्ण हुए थे, वहीं 2019 में हिंदी माध्यम के केवल 3% प्रतिभागी उत्तीर्ण हुए। ऐसे में कोई भी अभिभावक क्यों चाहेगा कि उनकी संतान हिंदी माध्यम से पढ़े। पहले यूपीएससी के टॉप 10 में हिंदी माध्यम के एक-दो छात्र निश्चित रूप से हुआ करते थे, लेकिन आज हिंदी माध्यम से चयनित हुए पहले प्रतिभागी का मेधा सूची में 317वां स्थान है।

उन्होंने आगे कहा कि अपनी भाषा में ही व्यक्ति मौलिक चिंतन और शोध कर सकता है। दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं वे अपनी भाषा में पढ़ते हैं, शोध करते हैं और मौलिक चिंतन करते हैं। दरिद्र देश ही दूसरी भाषाओं में अध्ययन करते हैं। आज भारत को विश्व गुरु बनाने की बात की जाती है लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि जब हम पूर्व काल में कभी विश्व गुरु थे तब हम अपनी भाषा में शोध, चिंतन और अध्ययन करते थे।

भारत के सभी महान कार्य अपनी भाषा में ही सम्पादित हुए। यह ध्यान रखना जरूरी है कि इजराइल जैसे देश ने हिब्रू जैसी प्राचीन भाषा को संवर्धित करके अपने -आप को विश्व के शीर्ष देशों में शामिल किया है। जिस देश में कोर्ट में अंग्रेजी में न्याय पाने के लिए भटकना पड़े वहाँ कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह देश आगे बढ़ेगा।

प्रो. अवधेश कुमार मिश्र ने इस अवसर पर कहा कि जान बूझकर हमलोगों के सामने ऐसी स्थिति पैदा की गई कि दिन -प्रतिदिन हमारी अंग्रेजी पर निर्भरता बढ़ती गयी, जबकि होना यह चाहिए था कि अंग्रेजी पर हमारी निर्भरता कम हो। भाषा और संस्कृति का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है और भारत के विरोधी देश जानते थे कि भारत की शीर्ष भाषाओं को अगर नष्ट किया जाएगा तो वहाँ की संस्कृति पर भी चोट होगी।

आज भारत में 90 प्रतिशत लोग अपनी मातृभाषा में ही कार्य करते हैं जबकि 10 प्रतिशत से भी कम लोग ठीक ढंग से अंग्रेजी समझते – जानते हैं| इसके बावजूद ऐसा माहौल बनाया गया कि बिना अंग्रेजी के हमारा जीवन यापन नहीं हो सकता। भारत के वैसे लोग जो अंग्रेजी मानसिकता से नहीं निकल सके उन्होंने साजिशन अंग्रेजी को बढ़ाने का कार्य किया।

हिन्दी भाषा निश्चित रूप से विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है लेकिन दुखदायी यह है कि हमारी हिंदी भाषा भीतर से कमजोर हो रही है। आज भाषा को सिर्फ ऐसे सीमित कर दिया गया जैसे भाषा का कार्य सिर्फ साहित्य सृजन करना है। आज हमारी भाषा इसीलिए पिछड़ रही है क्योंकि इसमें रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं।

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अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा को विस्तृत फलक पर ले जाने की आवश्यकता है। अभी बहुत विलम्ब नहीं हुआ है और सब खत्म भी नहीं हुआ है। इसलिए जरूरत है समन्वित प्रयास की, जिससे हिंदी का पुनरुत्थान हो।
हिंदी ही ऐसी भाषा है जो किसी जाति, धर्म, क्षेत्र आदि से बंधी नहीं है बल्कि यह देश के हर क्षेत्र, हर जाति और हर धर्म को जोड़ती है। हिंदी है तो भारत है। पूरे विश्व को एक रखने के लिए भारत और हिंदी का बने रहना आवश्यक है।

डॉ. आनन्द प्रकाश गुप्ता ने कहा कि आज हिंदी की इस गति के जिम्मेवार भारतीय ही हैं। संविधान सभा में जहाँ उत्तर भारतीय हिंदी के पक्ष में थे, वहीं दक्षिण भारतीय अंग्रेजी के पक्ष में, बंगला के पक्ष में भी एक धड़ा सुनीति कुमार चटर्जी के साथ खड़ा हो गया था। विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी दूसरे नम्बर पर है जबकि अंग्रेजी तीसरे स्थान पर है।

आज तक कुल मिला कर 11 विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुके हैं, जिसमें भारत में केवल 3 ही हुए हैं बाकी सब विश्व के अन्य हिस्सों में हुए हैं। डॉ० चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने इस अवसर पर कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अपने देश में ही हिंदी के विस्तार का ठीक से आकलन नहीं कर रहे हैं। हैदराबाद से निकलने वाली ‘कल्पना’ पत्रिका हो या फिर अहिन्दी प्रदेशों की हिंदी सेवी संस्थाएं, जिन्हें हिंदी प्रदेश भूलते जा रहे हैं।

जिन्होंने विश्व के अन्य देशों में रहकर हिंदी की सेवा की उन्हें भी हमें याद करना चाहिए, इतना ही नहीं वे लोग जिनके पूर्वजों को गिरमिटिया मजदूर के रूप में अंग्रेज लेकर चले गए उनकी अगली पीढ़ी ने भी हिंदी की खूब सेवा की। अभिमन्यु अनत हों या रामदेव धुरंर्धर, इन्होंने हिंदी को वैश्विक परिदृश्य पर अलग स्थान दिलाया।

महादेव खुनखुन जैसे सूरीनाम के रहनेवाले आधुनिक कबीर को भी हमें याद करना चाहिए। कैरिबियाई देशों में रहनेवाले हिंदी सेवियों के अवदान को भी नहीं भूलना चाहिए जो कभी भारत नहीं आये,इसके बावजूद उन्होंने हिंदी की पूरे विश्व में विशिष्ट पहचान बनाई।

डॉ. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने इस अवसर पर कहा कि हिंदी का भूतकाल तो उज्ज्वल था भविष्य भी उज्ज्वल होगा लेकिन वर्तमान धुंधला है। सच पूछिए तो हिंदी अपनों से छली गयी है। स्वाधीनता की लड़ाई की भाषा हिंदी रही है। आजादी के पचहत्तर वर्षों के गुजर जाने के बावजूद हिंदी में कुछ नया निर्माण नहीं हुआ।

हिंदी आम जनता की भाषा रही है और आज उसका फलक इतना व्यापक है तो उसके पीछे आम जनता का उसपर अतुलनीय भरोसा है, न कि देश की सरकार अथवा कोई विश्वविद्यालय है।

कार्यक्रम में स्वागत गायन स्नातकोत्तर की छात्राएं स्नेहा कुमारी और अंशु कुमारी ने किया। मंच संचालन डॉ. मंजरी खरे ने किया। तकनीकी सहायता मारवाड़ी महाविद्यालय दरभंगा के डॉ० गजेंद्र भारद्वाज और डॉ० अनुरुद्ध सिंह ने की। सी०एम० काॅलेज के अखिलेश कुमार राठौर, शोधार्थी कृष्णा अनुराग , धर्मेन्द्र दास, अभिषेक कुमार, सियाराम मुखिया, सरिता कुमारी ,शिखा सिन्हा के अलावा मौके पर बड़ी संख्या में छात्र और शोधार्थी एवं शिक्षक ऑनलाइन/ऑफलाइन माध्यम से जुड़े रहे।

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